शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

आयातित शब्दावली और दक्षिणपंथ

भारतीय समाज में और राजनैतिक परिदृश्य में कई ऐसे काल्पनिक शब्द हैं जो आयातित विचारधारा से पोषित और झूठ की बुनियाद पर टिके हुए हैं, उनका वास्तव में किसी भी भाषा से कोई वास्ता नहीं है। उदाहरण के तौर पर दक्षिणपंथी, फांसीवादी जैसे शब्द, यह शब्द किस संस्कृति से आये? क्या कभी किसी ने इसकी खोज खबर की। मेरे विचार से नहीं, यह आयातित मानसिकता और वामपंथी साज़िशों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जिसका पहले हम शिकार बने और फिर धीरे धीरे हम सब उस साज़िश का हिस्सा बन गए। आज आप लगभग हर राजनैतिक चर्चा में इस प्रकार के शब्दों को सुनेंगे, यह उपमा बन गए हैं। हद्द तो तब है जब राष्ट्रवादी भी स्वयं को दक्षिणपंथी कहलवाने में संकोच नहीं करते? आइये इसकी कुछ असलियत की परतें खोजते हैं। 

इस राइट और लेफ्ट शब्द को पहली बार फ्रांसीसी क्रांति (१७८९-९९) में उपयोग किया गया था, उस समय फ़्रांसिसी संसद में सत्ता और साम्राज्यवाद के समर्थकों को सत्ता के सिंहासन के दाहिने ओर और फ़्रांसिसी क्रांति के समर्थकों और साम्राज्यवादियों के विरोधियों को बायीं ओर बैठाया गया। प्रारंभिक तौर पर यह दक्षिणपंथी लोग बायीं तरफ के लोगों के विरोधी और सरकारी व्यवस्था, याजकवाद और परंपरावाद के समर्थक थे। इनको परिभाषित करता हुआ पहला फ़्रांसिसी शब्द "la droite" (the right) था। फ़्रांस में १९१५ में पुनः साम्राज्यवाद की स्थापना हुई और दक्षिणपंथियों को "Ultra-royalist" कहा गया। इस शब्दावली को बीसवीं शताब्दी तक किसी और देश ने अपने राजनीतिक परिदृश्य के अनुसार नहीं अपनाया था और यह लेफ्ट और राइट की परिभाषा फ़्रांसिसियों तक सीमित थी। १८३० से लेकर १८८० तक पश्चिम व्यवस्थाओं में कई बदलाव हुए, पूँजीवाद के खिलाफ कई आवाज़ें बुलंद हुई, और इस पूंजीवादियों के खिलाफ हुई इस सामाजिक और आर्थिक हलचल के बीच पहली बार ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी ने पूँजीवाद का समर्थन किया था, वामपंथियों की नज़र में यह घनघोर अपराध था और कंजरवेटिव पार्टी पर दक्षिणपंथी होने का ठप्पा लग गया था। अब भले यह दक्षिणपंथी शब्द साम्राज्यवादी सत्ता के समर्थन से बनी थी, लेकिन इसमें बाद में कई अन्य विचारधाराओं जैसे प्रचंड, कट्टर राष्ट्रवाद, फांसीवाद, धार्मिक कट्टरपंथियों जैसे कई विचार समाहित हो गए। सो संक्षेप में कहें तो फ़्रांस की संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले बाई तरफ़ बैठते थे और पूँजीवाद से सम्बंधित विचारधाराओं, साम्राज्यवाद और पूंजीवादियों के समर्थक दाईं राजनीति के अंग कहलाये। ऑक्सफ़ोर्ड की राजनीति शास्त्र की परिभाषा के अनुसार दक्षिणपंथी विचारधारा, समाजवाद और सामाजिक लोकतंत्र के खिलाफ है और यह पूरी तरह से परंपरावादी, धार्मिक कट्टरपंथी और फांसीवादी है। अब इन शब्दावलियों में बहुत विरोधाभास थे सो रॉजर एत्तवेल्ल और नील ओसुल्वियन जैसे ब्रिटिश राजनीतिक विशेषज्ञों ने इस दक्षिणपंथी को और पांच भागों में विभक्त किया है, "प्रतिक्रियावादी", "मध्यम", "उग्र", "चरम" और "नवीन"। "प्रतिक्रियावादी" वह लोग हैं जो भूतकाल को देखते हुए और धार्मिक, सत्तावादी मानसिकता को बढ़ावा दें। माध्यम मार्गी दक्षिणपंथी हर प्रकार के बदलाव के लिए तैयार और बहुत लचीला है यह सत्ता और साम्राज्यवाद को भी स्वीकार करता है और यह किसी भी प्रकार की उग्रता और चरमपंथ को स्वीकार नहीं करता है। उग्र वाद और चरमपंथ के बारे में कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है और रेडिकल राइट या फिर उग्र दक्षिणपंथी जैसे शब्द द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समझे और जोड़े गए। बहरहाल ब्रिटेन के बाद अमेरिका भी इस लेफ्ट और राइट की राजनीति से अछूता न रह सका और फिर इसके बाद कई समाजशास्त्रियों ने बहुत कुछ और जोड़ दिया। सेंटर लेफ्ट, फार लेफ्ट और फार राइट जैसे शब्द इसमें जोड़े गए, और यह सभी शब्द उस समय की राजनैतिक दशा दिशा में समझे और समझाए गए। अमेरिका का गृह मंत्रालय दक्षिणपंथी मानसिकता को धृणा और उग्रवादी के समान देखता है और उन्होंने इसी धार्मिक उन्माद की श्रेणी में डालकर नियंत्रण के लिए विशेष कानून भी बनाये हैं। 

आप इस जानकारी के आधार पर पश्चिम की मानसिकता के आधार पर दक्षिणपंथ की परिभाषा समझ सकते हैं। भारत में दक्षिणपंथ और फांसीवादी जैसे शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं था क्योंकि इनका भारतीय लोकतंत्र और राजनैतिक, सामाजिक संरचना से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। ये भ्रम और झूठ के बीच जिन्दा रखी गयीं वे शब्दावलियां हैं जिनको आयातित वामपंथी विचारधारा द्वारा भारतीय समाज एवं राजनीति में जहर की तरह कूट-कूट कर भर दिया गया है। जो लेफ्ट और राइट यूरोप में दो मानसिकताओं के बीच के संघर्ष से पैदा हुई हो उसे भारतीय परिदृश्य में कैसे रखा जा सकता है? दरअसल यह एक बहुत गहरी साज़िश है, वामपंथियों ने बड़ी ही कुटिलता से अपने सभी विरोधियों को साहित्य में दक्षिणपंथी लिखना शुरू किया और शब्दावलियों का जिनका भारत की संस्कृति से कोई लेना देना ही न था, फिर भी उन्होंने प्रचारित और प्रसारित किया। भ्रम का और झूठ का यह मायाजाल इतनी आसानी से फ़ैल गया कि स्वयं भारतवासी भी भ्रमित हो गए। भारत के राष्ट्रवादियों ने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यह दक्षिणपंथी शब्द दरअसल फ़्रांस की राजसत्ता के पक्षधर लोगों को सत्ता के दक्षिण में बैठाये जाने के कारण उत्पन्न हुआ है और इसका भारत से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। 

क्या भारत का कोई भी तथाकथित दक्षिण पंथी राजनैतिक दल राजसत्ता का हिमायती होता दीखता है? वामपंथी विचारकों ने जिन दलों को दक्षिणपंथी होने का आरोप मढ़ा है उनमे से कितने हैं जो साम्राज्यवाद के समर्थक हैं? क्या इस तथाकथित दक्षिणपंथी मानसिकता ने कभी भी लोकतान्त्रिक परम्पराओं को नकारा है? मित्रों दुःख इस बात का है कि भारतीय राष्ट्रवाद आज वामपंथी विचारकों के बौद्धिक फरेब और भ्रमजाल में बुरी तरह से फंस चुका है और उसे खुद भी सही और गलत की समझ नहीं रही है। भारतीय राष्ट्रवाद एक उदारवादी और सांस्कृतिक परम्पराओं और वेदों, पुराणों और युगों युगों से चलती आ रही धार्मिक परम्पराओं और "वसुधैव कुटुम्बकम" की मान्यता वाला राष्ट्रवाद है। उसका किसी भी प्रकार के उग्रवाद या चरमपंथ से कोई लेना देना नहीं है। इन्ही शब्दों के मकड़जाल ने भारत के राष्ट्रवादी, उदार और हिंदूवादी धार्मिक संगठनों को पश्चिम की नज़र में चरमपंथी बता दिया है। अब पश्चिमी देशों का नजरिया दक्षिणपंथ को लेकर उनके अपने अनुभव के आधार पर है, इन्हे भारत की संस्कृति और पौराणिक मान्यताओं से क्या लेना देना? यही कारण है कि भारत में हिंदुत्ववादी तत्वों के समर्थन में कोई आवाज़ पश्चिम देशों से नहीं आती। 

कुल मिलकर मैं यही कहना चाहता हूँ कि भारत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना में दक्षिणपंथ जैसा कोई शब्द कहीं से भी उचित नहीं है और यह सिर्फ और सिर्फ वामपंथी कुतर्क और बहुसंख्यक उदार राष्ट्रवादियों  की नासमझी की देन है। 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

थोड़ी सी सच्चाई...

मैं जानता हूँ इसको पढ़ने की तकलीफ बहुत कम लोग करेंगे और या फिर शायद दो चार लोगो को ही फुरसत होगी इसे पढ़ने की। फिर भी समय मिले तो पढ़ लीजियेगा। किसी पर कोई असर होगा, वैसी भी उम्मीद नहीं फिर भी......  
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आज हम बात करते हैं ईसाई धर्म के प्रचारकों की कर्मठता की, वह कैसे महान प्रचारक थे। उन्होंने कैसे अपने धर्म का प्रचार किया, धर्मांतरण किये और कैसे गोवा (गोकर्ण-भूमि) को ईसाइयत का केंद्र बनाया। दुनिया के हर धर्म, पंथ का एक प्रचार तंत्र होता है (हिन्दू धर्म को छोड़कर) जिसके द्वारा वह अधिक से अधिक लोगों को अपने धर्म से जोड़ने को तत्पर रहते हैं। आइए इसे समझने का प्रयास करते हैं, जब संसार में कोर्ट कचहरी नहीं थे तब पश्चिम में हर गाँव का शासन उस गाँव के गिरिजाघर के पास रहता था, यह गाँव के गिरिजाघर सम्पत्ति का बँटवारा, लड़ाई झगड़े, नैतिक अनैतिक सवालों में अपने निर्णय दिया करते। गाँव के गिरिजाघर एक शहर के बड़े गिरिजाघर से और फिर कई शहर के गिरिजाघर अपने अपने मुख्य गिरिजाघर से जुड़े होते। यह फिर अंत में वैटिकन से जुड़े रहकर अपना शासन चक्र चलाते। प्रत्येक राजा इसी अनुसार शासन चलने का प्रयास करता और धर्म का राज कायम रहता। यहाँ इस प्रकार से गिरिजाघरों का अपना एक शासन तंत्र होता जिसका वह सभी पालन करते। ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार के लिए बिशप नियुक्त किए जाते जो देश विदेश में घूम घूमकर अपने धर्म का प्रचार करते। यह प्रचार के लिए और अपने धर्म को फ़ैलाने के लिए किसी भी हद्द तक जाते। अब श्रीमान फ्रांसिस ज़ेवियर साहब को ही देखिये, इन्होने गोकर्ण भूमि(आज का गोवा) में भयंकर नरसंहार करके ईसाइयत फैलाई और हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन करके ईसाई बनाये जाने के लिए मजबूर कर दिया। भारत के अंदरुनी राजाओं की रंज़िशोंं ने इसमें विदेशी शासकों का काम बहुत आसान कर दिया। उन्होंने तीन वर्ष तक धर्म प्रचारक (मिशनरी) कार्य किया। मलाया प्रायद्वीप में एक जापानी युवक से जिसका नाम हंजीरो था, उनकी मुलाकात हुई। सेंट जेवियर के उपदेश से यह युवक प्रभावित हुआ। 1549 ई. में सेंट ज़ेवियर इस युवक के साथ पहुँचे और जापानी भाषा न जानते हुए भी उन्होंने हंजीरों की सहायता से ढाई वर्ष तक प्रचार किया और बहुतों को अपने धर्म का अनुयायी बनाया। जापान में अपनी इस कामयाबी के इनाम स्वरूप वह भारत भेजे गए और 1552 ई. में गोवा लौटे। वहाँ दक्षिणी पूर्वी भाग के एक द्वीप में जो मकाओ के समीप है बुखार के कारण उनकी मृत्यु हो गई। फ्रांसिस जेवियर ने केवल दस वर्ष के अल्प मिशनरी समय में 52 भिन्न भिन्न राष्ट्रों में यीशु मसीह का प्रचार किया। कहा जाता है, उन्होंने नौ हजार मील के क्षेत्र में घूम घूमकर प्रचार किया और लाखों लोगों को यीशु मसीह का शिष्य बनाया। अब आप इसी प्रचार का असर देखिये जो आज भारतवर्ष में लगभग हर शहर में सेंट फ़्रांसिस ज़ेवियर के नाम पर स्कूल हैं, हर स्कूल के अपना एक फ़ादर होते हैं जो उस स्कूल के प्रिन्सिपल होते हैं। इन स्कूलों का मक़सद क्या है? यह स्कूल मुख्यतः ईसाई धर्म में अनुसार चलते हैं, आपने कई बार सुना होगा की स्कूल में मेहंदी लगाने के वजह से पिटाई कर दी गयी और क्लास से बाहर निकाल दिया गया। दरअसल यह इसलिए क्योंकि ईसाई धर्म के अनुसार यह वर्जित है। यहाँ क्रिसमस मनाया जाता है लेकिन आपको दीवाली या होली मनाए जाने की कोई ख़बर सुनने को नहीं मिलेगी। इनकी शिक्षा व्यवस्था सीबीएसई बोर्ड के अनुसार ही होगी लेकिन यह रोज के कार्यकलाप ईसाई धर्म के अनुसार ही करेंगे। इन स्कूलों के पास मिशनरीज़  संस्थाओं के ज़रिये भरपूर पैसा आता है और यह अपनी फीस भी खूब चढ़ा कर रखते हैं। उसके दो कारण हैं, १) अमीर परिवारों के बच्चे वैसे भी अंग्रेजियत की बीमारी के शिकार होते हैं और २) कैटेल क्लास के बच्चों को अपने स्कूल में भर्ती कराकर कौन क्लास की फोटो ख़राब करे। अपना भारतीय समाज, जहाँ बुद्धिजीवी इस विनाशकारी सोच से पीड़ित हैं कि कान्वेंट में पढ़ना उसके लिए अंग्रेजियत और मॉडर्नाइजेशन की निशानी है। ऐसे में इनका काम काफी आसान हो जाता है। 

ईसाई, बौद्ध धर्म ने अपने प्रचार के लिए जिस प्रकार का प्रयास किया वह अनूठा है। हिन्दू धर्म इस प्रकार के प्रचारकों से वंचित रहा, यदि मैं आदि शंकराचार्य के अलावा किसी और को याद करने का प्रयास करूँ तो कोई भी नाम मष्तिष्क पटल पर नहीं आता। इस्लाम के सूफियों ने इसी प्रकार अपने पंथ का प्रचार करने का प्रयास किया और वह भी एक बड़े हद तक कामयाब भी रहे। भारत में इन सभी को अपार सफलता मिली क्योंकि भारत के राजा कभी संगठित रहे ही नहीं। इसके कारण सभी राजाओं ने विदेशी आक्रान्ताओं का साथ देकर अपने क्षणिक लाभ के लिए अपनी ही मातृभूमि के साथ ही गद्दारी की। 

अब अगर मैं आपको समझाने का प्रयास करूँ तो गोवा महाभारत काल में गोकर्ण भूमि था, स्कन्द पुराण के अनुसार 

गोकर्णादुत्तरे भागे सप्तयोजनविस्तृतं
तत्र गोवापुरी नाम नगरी पापनाशिनी 

गोवा आदि काल से परशुराम की कर्म स्थली रहा और हिन्दू धर्म में इसका उल्लेख बहुत प्रमुखता से है।  राजा भोज, चालुक्य, कदम्ब, देवगिरि, विजयनगरम राष्ट्रों के साथ रहने के बाद उसे मुस्लिम शासकों के नियंत्रण में रहना पड़ा। वह प्रमुखता से हिन्दू बहुल क्षेत्र था लेकिन मुस्लिम और फिर पुर्तगालियों के नियंत्रण में होने के कारण हिन्दू धर्म को बहुत हानि हुई। इसमें हद तब हो गयी जब गोवा में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर आये और उन्होंने बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण करने के लिए आर्थिक लाभ, सरकारी फायदा और कई अन्य सुविधाओं की घोषणा कर दी। उस समय लोगों के पास अपनी जान बचाने के लिए कोई अन्य उपाय न था। नतीजा गोवा का इसाईकरण हुआ और सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर प्रमुख संत घोषित कर दिए गए और वह आज भी ईसाई धर्म के सबसे प्रमुख मिशनरी प्रचारकों में गिने जाते हैं। वैसे गोवा के ईसाई आज भी कई रीति रिवाज़ हिन्दू धार्मिक पद्धतियों से ही करते हैं लेकिन समय की मार से वह ईसाई हैं। लोग पूछ सकते हैं की मैं आज इस विषय पर क्यों लिख रहा हूँ। मित्रों मैं कभी धर्म, अधर्म की चर्चाओं में नहीं पड़ता लेकिन जब धर्म को सहिष्णुता से जोड़ कर कोई भी ऐरा गैरा हिन्दू धर्म को ही गाली देने लगे तो मुझ जैसे व्यक्ति को खामोश बैठ जाना तर्क संगत नहीं है। 

आप कई सदियों तक हमारे धर्म को लूटते आये, हम चुप रहे 
आप स्कूलों, कालेजों में शिक्षा के नाम पर अपना प्रचार करते रहे, हम चुप रहे 
आप हमारे धर्म को गालियां देते रहे, हम चुप रहे 

अब बस कीजिये, हमें भी बोलने का मौका दीजिये, हम कई सदियों से अत्याचार सहते रहे हैं, लुटते रहे हैं, पिटते रहे हैं अब अगर थोड़ी सी सच्चाई बयां करके आपकी असलियत ज़ाहिर कर दी तो अपना चेहरा देखकर आप इतना बिलबिला क्यों रहे हैं? 



मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कांग्रेस का ज़माना ही अच्छा था

कांग्रेसी शासन ज्यादा अच्छा था, देश सहिष्णु था। कांग्रेसी काल में कभी कोई दंगे नहीं हुए थे, जाति आधारित राजनीति बिल्कुल भी नहीं होती थी। बिचौलिए बिल्कुल भी नहीं थे, हर सामान का दाम इतना कम था कि एक रिक्शे वाला भी फाइव स्टार में खाता था, सिर्फ बारह रुपये में थाली मिल जाया करती थी। सिर्फ तैतीस रुपये में अय्याशी से जिया जा सकता था। बैंक गरीबों को मुफ्त में खाता खोल दिया करते थे, बारह रुपये तो क्या मुफ्त में करोड़ों का बीमा मिल जाया करता था। कांग्रेसी काल में महिलाओं के प्रति कोई अन्याय नहीं होता था। अपराध नाम की कोई चीज थी ही नहीं, कांग्रेसी इतने देशभक्त थे जो सिर्फ चरखा चला के आज़ादी ले आये थे। चाचा नेहरू ने गुलाब के फूल से सभी का दिल जीत लिया था, वह बच्चों को इतने प्रिय थे की बच्चों को डाक टिकट भेज दिया करते थे। उन्होंने भी देश को आज़ादी दिलाने के लिए चरखा चलाया था। कांग्रेसी इतने अच्छे से मिल जुल कर घोटाला किया करते थे की कोई समझ ही नहीं सकता था। एक देश में जब भाई भाई मारामारी कर लेते हैं वहां इनका इतनी समन्यवता के साथ घोटाला करना देश में मिसाल बन जाया करता था। पुलिस, सीबीआई, सीएजी जैसी संस्थाएं काम में इतना व्यस्त रहती थी कि क्या कहा जाए। रोज रोज नए घोटाले की खबर से जनता में समन्यवता की भावना बढ़ती थी। सरकारी कर्मचारी तो इतने सुखी थे कि क्या कहें, वह जब मन करे ऑफिस आया करते थे और जब मन करे तो निकल जाय करते थे। महिलाएं ऑफिस में बैठ कर आराम से स्वेटर बुन लिया करतीं थी, सब्ज़ियाँ काट लिया करती थी। हमारी विदेश नीति इतनी अच्छी थी कि नेपाल, भूटान और श्रीलंका जैसे देश भी हमारे ऊपर चढ़ बैठा करते थे। पाकिस्तानी हमारे देश के सैनिकों का सिर्फ सर ही तो काट ले जाया करते थे, केंद्र की कांग्रेस सरकार हमेशा उसकी कठोर शब्दों में निंदा करके विरोध जता दिया करती थी। हमारे चाचा नेहरू ने चीन को संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता का समर्थन करके सहिष्णुता का परिचय दिया था। कांग्रेसी काल में एक भी बम ब्लास्ट नहीं हुआ करते थे, हाफ़िज़ सईद भाई, ओसामा जी के साथ सरकार के मधुर सम्बन्ध जो थे। वाकई बहुत अच्छा लगता था.… 

और भाजपा वाले, डेढ़ साल में एक घोटाला नहीं, कैसे लोग हैं आपस में ही मिल जुल कर काम नहीं कर पाते, अपनी ही पार्टी के लोकतंतर का पालन करते रहते हैं। और सबसे ज्यादा ज़ुल्म तो सरकारी कर्मचारियों के साथ होता है उनको समय पर ऑफिस आना पड़ता है। सरकारी दफ्तरों में काम करने वाली महिलाएं अब स्वेटर नहीं बुन पातीं, सब्ज़ियाँ नहीं काट पाती, वाकई कितनी अत्याचारी सरकार है न भैया। मोदी के पहले कोई प्रधानमन्त्री विदेश गया ही नहीं था और मोदीजी ने विदेश जाना शुरू करके एक बहुत ही गलत परंपरा डाल दी है। और हाँ मोदीजी ने देश के सैनिकों को गोली का जवाब गोले से देने का आदेश देकर बहुत ही असहिष्णुता का परिचय दिया है। श्रीलंका और सेशेल्स में भारतीय नौसेना का बेस बनाकर मोदीजी ने चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के साथ सम्बन्ध ख़राब कर लिए हैं। मोदी तो कुछ भी फ्री में देने का मूड ही नहीं बनाते, उलटे सब्सिडी वापस लेने की बात करते हैं।  

वाकई मोदी बहुत अत्याचारी प्रधानमंत्री हैं तानाशाह हैं एकदम, कांग्रेस का ज़माना ही अच्छा था। 

रविवार, 8 नवंबर 2015

जंगलराज मुबारक

बिहार वाकई में बिहार है, आज चुनाव के नतीजे देख कर और लालू की वापसी को देखकर पहले तो चिंतित हुआ लेकिन फिर संयत भी हो गया। विश्व के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक, जहाँ आज भी प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का एक तिहाई, न कोई विश्व-स्तरीय शिक्षण स्थल, न कोई पांच-सितारा होटल, पर्यटन के स्थल भी गिनती के हिन्दू धर्म (बाबा धाम) और बौद्ध धर्म (गया) हैं। लालू का वह दौर याद कीजिये जब यदि कोई पटना का व्यवसायी मर्सीडीज़ खरीदता था तो उसके अगले दिन उसके घर फिरौती या फिर गुंडा टैक्स वसूली के लिए चिट्ठी पहुँच जाती थी। अपनी इस दुर्दशा के लिए बिहार किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकता है, इसके लिए सिर्फ और सिर्फ बिहार दोषी है। आज लालू की वापसी हुई और बिहार में जंगलराज की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो गया। दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा को समझ जाना चाहिए था कि इस देश में विकास और प्रगति की बात करने से वोट नहीं मिला करते, यहाँ सिर्फ और सिर्फ जाति समीकरण का ध्यान और अपना वोट बैंक बनाए रखने से वोट मिलते हैं।

आखिर भारत जातिवाद के इस कुचक्र से कभी भी निकल सकेगा? शायद कभी नहीं, भारत में मुस्लिम समुदाय वोट बैंक बना रहेगा, दलित वोट बैंक बना रहेगा, यादव वोट बैंक बना रहेगा, और इस देश में लालुओं, मुलायमों का जंगलराज रहेगा, हमेशा रहेगा। वाकई आज के नतीजे के बाद साबित हो गया। धन्य हो बिहार, वाकई धन्य हो… तुमने जंगलराज चुना है, तुम्हे जंगलराज मुबारक हो॥