गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

धर्मनिरपेक्षता का नाटक?

धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक देश होने का अर्थ यह है कि हर कोई अपने अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र हो! धर्म आपकी निजी अभिव्यक्ति है और आप किसी और की धार्मिक स्वतंत्रता में ख़लल डाले बिना अपने धर्म के विधि व्यवहारों का पालन कर सकते हों... इसीलिए यदि एक हिन्दू तिलक और टीका लगाए या भगवा पहने या कोई सिख पग धारण करे या कोई मुस्लिम टोपी पहने या ईसाई क्रॉस पहने तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। 

अब दूसरी बात: आपको धर्म के आधार पर रंग बदलने वाले राजनीतिक गिरगिटों से सावधान रहना चाहिए। उन राजनीतिक दलों के नेताओं से बचें जो सिर्फ़ किसी धर्म को अपना वोट बैंक समझते हों। या कोई ऐसा नेता हो जो फ़ारसी/मुस्लिम पिता की सन्तान हो लेकिन अपने धर्म पर गर्व करने के स्थान पर मुस्लिम वोट पाने के लिए जालीदार टोपी लगाए ले या ईसाई इलाक़े में क्रॉस पहन ले या फिर हिन्दुओं को बेवक़ूफ़ बनाने के लिए हिन्दू बहुल इलाक़े में अपने दादा की क़ब्र को नज़र अन्दाज़ कर तिलक लगाए और झूठा जनेऊधारी ब्राह्मण बन जाए। 

पिछले कुछ दशकों से हिन्दू विरोधी मानसिकता से ग्रसित और इमाम के फ़तवों/चर्च के आदेशों पर वोट पाने वाले दलों के नेताओं, उनके द्वारा पोषित हिन्दू लेखकों और उनके स्वयंसेवकों ने यह बार बार प्रचारित किया कि सिर्फ़ हिन्दू धर्म का विरोध ही धर्म निरपेक्षता का परिचायक हो सकता है। स्थिति २०१४ में बदल गयी जब हिन्दुओं ने भारी संख्या में वोट दिया... इस चुनाव के बाद पहली बार हिन्दुओं को वोट बैंक समझा गया... और इस कारण टोपी पहन कर, इफ़्तार दावतें देकर मुस्लिम समुदाय की जनता को मूर्ख बनाने वालों ने जनेऊ पहनकर हिन्दुओं को मूर्ख बनाना शुरू कर दिया! 

वैसे नेता ऐसा क्यों करते हैं यह मुझे बताने की ज़रूरत नहीं होना चाहिए, आप स्वयं समझदार हैं!





गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

मीडियाकर्मियों का पूर्वाग्रह और आप?

मित्रों, किसी भी सामान्य व्यक्ति की मानसिकता सुविधावादी होती है... सच कहूँ तो तटस्थ कोई नहीं है... सभी अपनी सुविधानुसार और अपनी समझ और पूर्वाग्रह से अपना पक्ष लेते हैं.. ठीक इसी प्रकार एक पत्रकार भी मनुष्य ही तो होता है और उसका भी अपना निजी राजनीतिक दृष्टिकोण होता है सो यदि कोई मीडियाकर्मी सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति के अनुशासन के दायरे में रहकर कोई बात कहता है तो लोगों को उससे आपत्ति नहीं होना चाहिए लेकिन हाँ फिर ऐसी स्थिति में उसे प्रतिक्रिया में दूसरे पक्ष के लोगों की बात को भी आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिए! वैसे पक्ष/विपक्ष की बहस से इतर एक बात कहता हूँ कि यदि आप अपने पूर्वाग्रह में कोई झूठ, ग़लत बयानी, तथ्यों को तोड़ मोड़ कर कहेंगे तो फिर आपको लोग आईना दिखाएँगे ही। यह सोशल मीडिया किसी का सगा नहीं और यहाँ हर किसी को ट्रोल किया जाता है, हर किसी को पल भर में वायरल होने की इतनी जल्दबाज़ी है कि लोग अब "देखते ही शेयर करने की" जल्दी में सच झूठ इत्यादि नहीं देखते! 

मेरी आपत्ति मीडिया, ब्लॉगर, कार्टूनिस्ट बिरादरी के लोगों से सिर्फ़ इतनी सी है कि आप अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर साफ़ नहीं रहते! वह अपने स्वयं के निजी फ़ेसबुक, ट्विटर इत्यादि पर कुछ भी लिखें क्योंकि यह निजी अभिव्यक्ति के दायरे में आता है लेकिन यही लोग जब कैमरा, माइक इत्यादि लेकर अपने स्टूडीओ में बैठते हैं तो एक ज़िम्मेदारी की नौकरी निभाने के बदले अपनी निजी सोच और पूर्वाग्रह को नहीं छोड़ पाते! इनका काम है न्यूज़ रिपोर्टर द्वारा दी गयी रिपोर्ट के आधार पर न्यूज़ एडिटर द्वारा लिखी गयी स्क्रिप्ट को पढ़कर लोगों को ख़बर दिखाना और न कि अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर एकतरफ़ा सनसनीख़ेज़ ख़बर बनाना! जर्नलिज़म के नाम पर अलग अलग पक्ष/विपक्ष के नेताओं से साँठ गाँठ कर लोगों के मन में किसी के लिए ओपिनीयन बनाना/बिगाड़ना, मानो यह ख़बर न देकर किसी दल के पीआर हों!  उदाहरण के लिए बार बार ख़ुद को तटस्थ कहने वाले कार्टूनिस्ट कीर्तिश जब बीबीसी में कार्टून बनाते हुए अपना मोदी विरोध का पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पाते तो वह दरअसल अपने पेशे से नमक हरामी कर रहे होते हैं, दूसरे बड़े कार्टूनिस्ट इरफ़ान तो ख़ैर बीमारू हद तक जेहादी रवैया अपनाते हैं, इन्होंने अपने जातिवादी (चौंकिए मत) रवैए के कारण और अपने मोदी विरोध के एजेंडे के कारण सर्जिकल स्ट्राइक, देश की सेना के शौर्य इत्यादि किसी भी मुद्दे पर विपक्ष के ख़राब रवैए को लेकर कुछ नहीं कहा... यह सिर्फ़ मोदी विरोध के अपने एजेंडे पर पगलाए रहते हैं... अपनी पुरानी ब्लॉगर बिरादरी में से भाई ख़ुशदीप सहगल के रवैए को देखकर भी दुःख होता है... एक ज़माने में लॉजिकल बात कहने वाले अब पत्रकारिता में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते अब राष्ट्रीय मीडिया का बड़ा चेहरा तो ज़रूर बने लेकिन अपना पूर्वाग्रह त्याग नहीं सके और भेड़चाल का हिस्सा बन गए! इन्होंने कई मौक़ों पर  कांग्रेस के प्रवक्ता की भाँति व्यवहार किया... उदाहरण के लिए कांग्रेस की हार पर ईवीएम को दोष देकर लोकतंत्र के लिए काला अध्याय कह दिया और जब तीन राज्यों में भाजपा की हार हुई तो इसे लोकतंत्र की जीत बता दिया! इन्होंने तो ख़ैर लंदन में ईवीएम को लेकर कांग्रेस की नौटंकी पर भी कांग्रेस का समर्थन कर दिया था

वैसे ऐसे भी कई लोग हैं जो मोदी सरकार की हर हरकत का अंधा समर्थन करते हैं... अब यदि कोई गुंडई को जस्टिफ़ाई करने लगे तो उसका क्या कहा जाए? उसके ऊपर मोदी सरकार के कई रणनीतिकारों ने ऐसा माहौल बना दिया कि मोदी सरकार की आलोचना मतलब आप देश विरोधी... न जाने कितने ऐसे क्रांतिकारी पैदा हो गए जिनके पास तनिक भी सहनशक्ति न थी! एक उदाहरण देता हूँ कि जौनपुर/मछलीशहर के सांसद साहब का युवा और जोशीला सोशल मीडिया पीआर मुझे फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो करता था, बाद में इस बालक ने फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजी और मैंने भी ऐक्सेप्ट कर लिया। इस बालक ने एक बार एक पोस्ट लिखी थी कि मड़ियाहूँ बना आदर्श स्टेशन! अब सांसदजी की तरफ़ से पीने के पानी का घड़ा, सीधी की मरम्मत का काम हुआ था, मैंने इसकी पोस्ट पर महज़ इतना कहा कि "यह तो बुनियादी ज़रूरतें हैं न, थोड़ा घर के बाहर निकल कर देखो कि आदर्श क्या है? यहाँ आदर्श के स्थान पर यह लिखो न कि इस स्टेशन पर बुनियादी ज़रूरतों का भी अभाव था और अब बुनियादी ज़रूरतें मुहैया हो गयी हैं।" उस बिचारे की असहिष्णुता का आलम यह था कि वह मुझे ब्लॉक कर अपनी फ़ेसबुक में मेरे ही ख़िलाफ़ अनर्गल प्रलाप करने लगा... मैंने इस अनुभव के समय कहा था कि हमेशा सत्ता से दूर रहे भाजपा को मोदी लहर में जो सफलता मिली है उसके बाद कई ऐसे लोगों को ऐसा अहंकार होगा जो महज़ पाँच वर्ष में ही इन्हें ले डूबेगा.... वह बात अलग है कि देश की विपक्षी पार्टियों ने मूर्खता की हर सीमा पार कर देशवासियों को विकल्पहीनता की स्थिति में ला दिया है और अब तो ख़ैर उन्होंने पाकिस्तान की भाषा बोलना शुरू कर दिया है तो फिर ऐसे में क्या कहा जाए? देश का विपक्ष सरकार का संचेतक होता है लेकिन पिछले चार पाँच सालों में भारत के विपक्ष ने स्वयं को अप्रासंगिक बना दिया है... 

यह दोनो ही प्रकार की मानसिकताएँ ख़तरनाक हैं... यह सब झूठ और फ़ॉल्स नैरेटिव सेट करने वाले देश के साथ एक अजीब सा ख़तरनाक मज़ाक़ कर रहे हैं... 

यदि आप किसी एक व्यक्ति/दल के सिर्फ़ विरोध/नकारात्मकता को मुखरता से कहते हैं और उसके द्वारा किए गए अच्छे प्रयासों को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं तो फिर आपकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है, तो उदाहरण के लिए यदि आप कांग्रेस के अंध समर्थक पत्रकार हैं तो आप गर्व से कहिए न कि आप अलगाववादियों पर कांग्रेस के नरम और देश की सुरक्षा के प्रति समझौतावादी रवैए का भी समर्थन करते हैं... यदि आप भाजपा के अंध समर्थक हैं तो गर्व से कहिए न कि आप रोजगार के आँकड़ों पर सरकार के रवैए का समर्थन करते हैं... यदि आप असलियत में तटस्थ हैं तो मेहरबानी करके चश्मा साफ़ कर अपने पूर्वाग्रह को त्याग कर अपनी बात कहें.... यदि आप अपना पूर्वाग्रह नहीं त्याग पाते तो विरोध में आने वाली कमेंट्स के लिए भी तैयार रहें... 

आम वोटर देशवासियों के लिए मेरी सलाह है कि आप कुछ दिन के लिए अपने तर्क का प्रयोग करें... यह "देखते ही शेयर करें" वाले ट्रैप से बचें... मीडिया के डब्बों में बैठकर स्क्रिप्टेड एजेंडे पर बहस कराने वाले मीडियाकर्मियों के ट्रैप से बचें... उन्हें आपको लड़वाने के लिए ही पैसे मिलते हैं... आप खामखां में अपनी ऊर्जा समाप्त करेंगे.... आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप हर राजनैतिक दल का मेनेफ़ेस्टो ख़ुद पढ़े, ख़ुद अपने क्षेत्र के उम्मीदवारों की जाँच करें, योग्य सांसद चुनें... ख़ुद फ़ैसला करें कि आपको केंद्र में कैसी सत्ता चाहिए... अगर आप ख़ुद अपने लिए योग्य की जगह जातिवाद को प्राथमिकता देंगे... उम्मीदवार की जगह इमाम का फ़तवा देखकर वोट देंगे... उम्मीदवार की जगह चर्च द्वारा दिए गए आदेश का पालन करेंगे तो फिर आप उसके बाद के दुष्परिणामों के लिए ज़िम्मेदार भी होंगे... धर्म नहीं... जाति नहीं... सिर्फ़ देश... सिर्फ़ विकास.... सिर्फ़ सेना, सिर्फ़ भारत का नाम... भारत का ध्वज... ही आपकी प्राथमिकता होनी चाहिए.... इसलिए अपनी अक़्ल लगाएँ... किसी के जाल में न फँसे... अधिक से अधिक संख्या में वोट डालें... देश को मज़बूत करें!  


- देव बाबा की डायरी, न्यूयॉर्क, दिनांक: अप्रैल 3, 2019  

शनिवार, 9 मार्च 2019

बुद्धिजीवियों का हिंदुत्व विरोध?

रिश्तों में पहले खटास आती थी... अब रिश्तों में मोदी जाते हैं... जी हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी... जिनकी फ़ैन फ़ॉलोइंग इतनी ज़्यादा है कि वह देश में नेहरु और वाजपयी से भी अधिक लोकप्रिय हैं.. सिर्फ़ वामपंथी, जातिवादी और फ़तवों पर वोट देने वाली क़ौम ही इस समय मोदी का विरोध कर सकते हैं! हाँ पत्रकारिता बिरादरी में कांग्रेसी और वामपंथी सोच से प्रभावित लुटियन ग्रुप को आज तक यह बात पच नहीं रही कि आख़िर कोई चायवाला प्रधानमंत्री कैसे बन गया... बुद्धिजीवी वर्ग तो ख़ैर अब भी मोदी को अनपढ़ गँवार मानता है... 

कल दो बुद्धिमानों ने मुझे सुनाते हुए यह कहा कि गंगा पिछले चार सालों में ज़्यादा गंदी हो गयी है... ऐसा कोई रिपोर्ट में पढ़ा था उन्होंने.. मुझे नहीं पता उन्हें ज़मीनी सत्यता का कितना भान है क्योंकि हरिद्वार से लेकर बनारस तक गंगा के घाटों की सफ़ाई का जो सफल चरण पिछले चार पाँच साल में दिखा वैसा पहले कभी किसी सरकार ने नहीं किया... स्वच्छता को लेकर भी कुम्भ मेले की तारीफ़ स्वयं युनाइटेड नेशन तक ने की... वैसे कुम्भ मेले में इस बार जहाँ बाइस करोड़ लोगों ने स्नान किया और सभी ने सफ़ाई अभियान की प्रशंसा की... दिल्ली की लुटियन मीडिया में इसे एक आम समाचार के तौर पर लिया गया क्योंकि उसके एजेंडा में मोदी और योगी की प्रशंसा करना नहीं होता... हाँ यदि कुम्भ में किसी भगवाधारी ने उपद्रव मचाया होता तो ज़रूर वह देश विदेश की सुर्ख़ियाँ बनता... कि देखो कैसे मोदी के आदमी ने बवाल मचा दिया... 

यह लुटियन मीडिया हिन्दू विरोधी क्यों है? अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के बाद नेहरु कांग्रेस ने अपनी ब्राण्ड इमेज बनाने के लिए कई पत्रकारों को पाला पोसा और मज़बूत बनाया... कई कई पीढ़ियों तक कांग्रेसी सत्ता का लाभ पाए पत्रकारों ने वही किया जो सरकारों ने उनसे कराया... बाद में तो ख़ैर स्थिति ख़राब हो गयी और अब पत्रकारिता अपने फ़ंड के लिए अरब के रास्ते, वेटिकन के रास्ते से निकलता हुआ पाकिस्तान की गलियों में घूमता हुआ देश विरोधी मानसिकता लेकर ही देश में दाख़िल होता है... इनका नज़रिया देश को लेकर अजीब सा होता है... इनकी मानसिकता के अनुसार बहुसंख्यक हिंदू का धर्म पालन सांप्रदायिकता है और अन्य वर्गों पर वह हमलावर है, अल्‍पसंख्‍यक की सांप्रदायिकता रक्षात्‍मक है, अत: प्रगतिशील भी है! इसी मानसिकता के कारण घूँघट पिछड़ा हो जाता है और बुरख़ा प्रगतिशीलता की निशानी! इसी मानसिकता के कारण होली पर पानी बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन जाता है और बक़रीद प्रगतिशील! इसी मानसिकता के कारण दिवाली, लक्ष्मीपूजा, नवदुर्गा पूजा, शिवरात्रि इत्यादि पिछड़ेपन की निशानी बन जाते हैं और क्रिसमस प्रगतिशीलता की निशानी बन जाता है! हद तो तब हो जाती है जब जेएनयू में देश विरोधी नारेबाज़ी प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो जाती है और वन्देमातरम कहना उग्र राष्ट्रवाद और पिछड़ेपन की निशानी बन जाता है... 

यह सच में एक धर्म युद्ध सरीखा है और इसमें आपको किसी एक मत की तरफ़ ही होना होगा... 


सोच कर देखिए आप किस तरफ़ हैं

शनिवार, 2 मार्च 2019

भारत और पाकिस्तान का मीडिया मैनेजमेंट

पुलवामा से लेकर आज की स्थिति में कई बातें साफ़ हुई

  1. पाकिस्तान का मीडिया मैनेजमेंट भारत से कहीं ज़्यादा बेहतर है, कारगिल में अपनी सेना के दख़ल को ग्यारह साल तक नकारने वाला पाकिस्तान इस बार भी साफ़ खेल गया - वैश्विक मीडिया सरकार के आधिकारिक बयान को तरजीह देती है और इस एयर स्ट्राइक के बाद की पाकिस्तानी सरकार की मजबूरी वाली स्थिति को भी वह बचाने में सफल हुए और हाँ इस बार भी उनकी प्रतिक्रिया ठीक कारगिल वाली है। भले ही यह झूठ बोलेंगे लेकिन फिर भी वैश्विक मीडिया उनकी आधिकारिक लाइन पर बनी रहेगी
  2. पाकिस्तान एक असभ्य देश है और वह सैनिकों का सम्मान भी नहीं करता: उस मुल्क से आप कोई उम्मीद कैसे कर सकते हैं जो पहले तो कारगिल युद्ध में अपने सैनिकों की मौजूदगी से इंकार कर देता है और ग्यारह साल बाद एकदम चुप चाप से अपनी मौजूदगी को स्वीकार करता है और अपने ऑफ़िसरों, सैनिकों को वीरता पदक देता है। आज भी स्थिति वैसी ही है और जब असभ्य भीड़ अपने ही एयर मार्शल के विंग कमांडर बेटे को पीट-पीटकर मार डालता है, पाकिस्तान इस ख़बर को छिपाने और लीपापोती में लग जाता है! वहीं दूसरी तरफ़ मैं यक़ीन से कह सकता हूँ कि यदि पाकिस्तान की तरफ से F-16 उड़ाने वाले विंग कमांडर शहाज़ुद्दीन अगर भारत में गिरते तो शायद बच जाते। बहरहाल इसके बाद भी सिर्फ़ अपने सफल मीडिया मैनेजमेंट के कारण पाकिस्तान वैश्विक मीडिया में इस बात को छिपाने सफल हुआ।
  3. आतंक का ठिकाना अभी भी बरक़रार: दो चार महीने बाद जैश--मोहम्मद कोई नए नाम से नया संगठन बनाए लेगा और फिर भी कोई ख़ास बदलाव नहीं होंगे
  4. भारत का मीडिया बातूनी, शोर-शराबे वाला और ख़ुद को महान दिखाने के चक्कर में देश हित को ताक पर रख देता है, इसे यदि नियंत्रित किया गया तो देश की क्षवि को तार तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा
  5. भारत के बुद्धिजीवी: जो सरकार पर विश्वास नहीं करते, सेना पर विश्वास नहीं करते, लेकिन दुश्मन देश के चैनलों, सरकारों पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं 
  6. भारत के विपक्ष के नेता: जो ऐसे समय पर भी राजनीति से ऊपर नहीं पाते और वैश्विक मीडिया का हवाला देकर अपनी सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं - उनका ऐसा करना दुश्मन देश की सरकार के लिए फ़ायदेमंद होता है


और हाँ एक और बात - कम याददाश्त वाला भारत कल झंडे लेकर अभिनंदन के स्वागत में खड़ा था और अब वही विपक्ष के नेताओं के सुर में सुर मिलाकर सरकार और सेना को कटघरे में खड़ा करेगा